परिणीता भाग :- १०
Parineeta भाग:-१०
शेखर अभी तक खड़ा-खड़ा हंस रहा था। ललिता की यह बात सुनकर वह सन्न रह गया। उसने कहा- ‘मैंने तुम्हारा उपहास किया है या तुमने मेरा किया है।’
ललिता ने अपने भीगे नेत्रों को पोंछकर कहा- ‘मैंने तुम्हारा उपहास कब किया?’
शेखर थोड़ी देर रुककर सजग हो गया और बोला- ‘थोड़ा-सा सोचने पर समज जाओगी। आजकल अपनी मनमानी कर रही हो, इसीलिए यात्रा पर जाने के लिए मना कर दिया है।’ शेखर यह कहकर चुप हो गया।
ललिता गूंगे की भांति खड़ी सुनती रही। चंद्र किरणों की रुपहली आभा में दोनों खड़े थे। लेकिन नीचे कमरे में अन्नाकाली अपनी गुड़िया की शादी कर रही थी। शंखध्वनि गूंज रही थी और खामोशी भंग हो रही थी।
थोड़ी देर के बाद शेखर ने कहा- ‘अधिक ठण्ड पड़ने लगी है, जाओ, नीचे चली जाओ।’
‘जाती हूँ’- कहकर उसने शेखर के पैर छुए और प्रणाम करके बोली- ‘मुझे यह तो बताते जाओ कि मैं अब क्या करूंगी?’
शेखर यह सुनकर हंस पड़ा। एक बार तो उसे भय-सा प्रतीत हुआ, पर उसने हाथ बढ़ाकर ललिता को पकड़कर हृदय से लगा लिया और उसके ओठों को अपने ओंठों से स्पर्श करते हुए कहा- ‘अब मुझे कुछ न बताना पड़ेगा, तुम स्वयं समझ जाओगी, ललिता!’
शेखर के इस प्रकार के स्नेह को देखकर ललिता को रोमांच हो आया। उसने दूर जाकर कहा- ‘तो क्या तुमने गले में माला पहना देने के कारण ही ऐसा किया।’
मुस्कुराते हुए शेखर ने कहा- ‘नहीं ललिता, ऐसी बात नहीं। मैं तो स्वयं काफी दिनों से ऐसा करने का विचार कर रहा था, परंतु किसी तरह का निश्चय न कर पाता था। आज अब यह अंतिम निश्चय हो ही गया। मुझे आज अनुभव हो रहा है कि तुम्हें त्यागकर मैं कहीं रह नहीं सकता।’
ललिता- ‘परंतु तुम्हारे पिताजी यह सुनकर अवश्य क्रोध करेंगे और माताजी को भी महान् कष्ट होगा। जो कुछ भी तुमने सोचा है, वह न हो पाएगा।’
शेखर ने कहा- ‘हां, पिताजी यह सुनकर अवश्य आग-बबूला हो जाएंगे, परंतु माताजी अवश्य हृदय से प्रसन्न होंगी। खैर अब तो कुछ होना ही नहीं हैं, जो होना था, हो गया। अब इसको खत्म कर ही कौन सकता है। जाओ, अब नीचे जाओ, माताजी को प्रणाम करो!’
ललिता वहाँ से नीचे चली गई, पर जाते समय भी वह घूम-घूमकर अपने प्रियतम को देखती रही।
8
लगभग तीन माह बाद, गुरुचरण बाबू मलिन मुख नवीन बाबू के यहाँ आकर फर्श पर बैठने ही वाले थे कि नवीन बाबू ने बड़े जोर से डांटकर कहा- ‘न न,न, यहाँ पर नहीं, उघर उस चौकी पर जाकर बैठो। मैं इस कुसमय में नहीं नहा धो सकता-तुमने जाति बदली है-यह सत्य है न?’
क्षुब्ध होकर गुरुचरण बाबू एक दूर की चौकी पर जाकर बैठे। कुछ देर वे मस्तक झुकाए बैठे रहे। अभी चार दिन पहले की बात है, उन्होंने विधिवत् ब्रह्मसमाज को ग्रहण कर लिया है। अब वह ब्रह्मसमाजी हो गए हैं- यह खबर आज ही नवीन राय को मिली है। अब उन्हें बंगाली समाज मैं बैठने का कोई अधिकार नहीं है। सामने गुरुचरण बाबू को बैठे हुए देखकर नवीन राय की आँखों से गरम लपटें निकलने लगीं, परंतु गुरुचरण बाबू एक अपराधी की तरह मौन बैठे रहे। किसी सलाह-सूत के बिना ही वे ब्रह्मसमाजी हो गण थे, परंतु उसी समय से घरेलू परेशानियां बढ़ं गई तथा रोना-चिल्लाना मचा रहता था। घर का कोना-कोना अशांत था। इस अशांति के कारण वह बड़े ही दुःखी थे।
नवीनराय ने फिर उद्दण्ड भाव से पूछा- ‘कहो यह सत्य है न कि तुम ब्रह्मसमाजी हो गए हो?’
‘यह घृणित कार्य तुमने किया क्यों? तुम तो केवल साठ रूपए तनख्वाह पाते हो, फिर क्यों?’ – गुस्से के मारे नवीनराय की जबान से बोल न निकला।
रोते हुए बड़े नम्रं स्वर में गुरुचरण बाबू ने जवाब दिया- ‘दादा, क्या कहें, बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी। दुःख में कुछ न दिखाई दिया। मैं यह न सोच सका कि गले में फांसी लगा लूं या फिर ब्रह्मसमाज में मिल जाऊं। अंत में ब्रह्मसमाजी हो जाना ही ठीक समझ में आया। इसीलिए मैंने यह ब्रह्मसमाज स्वीकार कर लिया।’
नवीनराय ने बड़े जोर से चिल्लाकर कहा- ‘बहुत अच्छा किया। अपने गले में फांसी न लगाकर सारे धर्म ओर समाज को फांसी लगा दी। वाह रे वाह! अच्छा, अब तुम यहाँ से चले जाओ और यह काला मुंह कभी भी यहाँ न दिखाना। जो तुम्हारे सलाहकार हैं, उन्हीं के पास जाकर उठो बैठो। यह सब सुनकर गुरुचरण बाबू वहाँ से चले गए, परंतु नवीनराय मारे क्रोध के कुछ भी नहीं सोच सके कि क्या करें और क्या न करें। गुरुचरण बाबू के भी अब वहाँ आने की कोई सम्भावना न थी।
गुरुचरण बाबू पर नाराज होने, झुंझलाने तथा बकने के सिवा नवीनराय कर ही क्या सकते थे। झट उन्होंने राज को बुलाया और घर में आने-जाने वाले ऊपर के रास्ते बंद करा दिये। उस रास्ते को बंद करके उन्होंने अपने क्रोध की शांति की।
बहुत दूर परदेश में बैठी हुई भुवनेश्वरी को यह हाल मालूम हुआ तो वह फूट-फूटकर रोने लगीं- ‘शेखर, भला ऐसा करने को किसने उन्हों समझाया?’
अनुमान से शेखर समझ लिया कि यह राय किसने दी है, परंतु वह बात न कहकर उसने कहा- ‘माँ, हो सकता था कि तुम लोग स्वयं ही उन्हें थोड़े दिन बाद अलग कर देते। समाज में उनकी छाया ही न पड़ने देते। कई कन्याओं की शादी कैसे कर सकते वह, समय पर? आखिर इसका तो कोई रास्ता मेरी समझ नहीं आता?’
गर्दन हिलाते हुए भुवनेश्वरी ने कहा- ‘बेटा, कुछ भी काम रुका न रह जाता। ऐसी हालात में गुरुचरण बाबू का पहले ही से ही धर्म छोड़ बैठना नादानी है या अक्लमंदी? यदि घबड़ाकर लोग अपने धर्म को छोड़ने पर तुल जाएं, तो हजारों लोग अपना समाज, धर्म छोड़ बैठें। भगवान ने पैदा किया है तो वही पालते हैं और सब कार्य पूरा करते हैं। वही भगवान गुरुचरण बाबू की भी रक्षा करते, काम बनाते!’
शेखर चुप रहा। गीली आँखें पोंछकर भुवनेश्वरी ने कहा- ‘यदि ललिता बिटिया को ही साथ ले आती, तो किसी-न-किसी प्रकार से उसका उपकार कर देती। हो सकता है कि इसी इरादे से गुरुचरण बाबू ने उसे मेरे साथ नहीं भेजा। मुझे तो यही पता था कि उसकी शादी की सचमुच तैयारी है।’
शेखर ने लज्जापूर्वक भुवनेश्वरी की तरफ देखकर कहा- ‘अच्छा है माँ, घर वापस चलकर इस कार्य को ऐसा ही करो न। ललिता तो अभी ब्रह्मसमाजी नहीं हुई है, केवल उसके मामा ही तो हुए हैं। उसके सगे मामा भी नहीं हैं। ललिता का कोई सगा नहीं है, इसी कारण वह उनकी शरण में पड़ी है।’
खूब सोच-सझकर भुवनेश्वरी बोलीं- ‘यह तो ठीक है; पर तुम्हारे पिताजी अजीब ढंग के व्यक्ति हैं, वे बड़े ही हठी आदमी हैं। किसी तरह से भी ऐसा करने को तैयार न होंगे। शायद उन लोगों से मिलने भी न देंगे।’
यही विचार शेखर के मन में भी बार-बार उठ रहे थे। वह माँ की बातों का कोई उतर न देकर, चुपचाप बैठा सुनता रहा और मन-ही-मन सोचता रहा।
शेखर अब परदेश में एक मिनट भी नहीं रहना चाहता था। बड़ी बेचैनी और परेशानी में वह दो-तीन दिन इधर-उधर घूमता रहा। फिर उसने मां से कहा- ‘यहाँ पर जी नहीं लगता माँ! चलो, घर चलें।’
उसी दिन वह घर लौटने को तैयार हो गई और कहने लगीं- ‘मुझे भी अछा नहीं लगता।’ कलकत्ता वापस आने पर दोनों ने देखा कि छत से आने-जाने वाला रास्ता बंध कर दिया गाय है। गुरूचरण बाबू से कोई भी नाता-रिश्ता करना नवीनराय को भला न लगेगा, यहाँ तक कि बोलना भी बुरा लगेगा, यह बात वे दोनों तुरंत ताड़ गए।
रात के समय जब शेखर खाने बैठा, तब माँ भी आकर उसके पास बैठ गई। कुछ देर बाद वह बोलीं - ‘गिरीन्द्र के साथ ही ललिता की शादी तय हो रही है, यह मैं पहले ही समझ गई थी।’
सिर नीचा किए हुए ही शेखर ने पूछा - ‘किसने कहा?’
भुवनेश्वरी- ‘उसकी मामी ही कह रही थी, और कौन कहता। दोपहर के समय जब वह सो गए थे, तो मैं स्वयं मिलने गई थी। मारे दुःख के उसकी मामी ने अपनी आँखें लाल कर लीं। थोड़ी देर बाद अपने आँसू पोंछकर सब कुछ कह गई।’ उन्होंने ही कहा- ‘यही तकदीर का खेल है, शेखर! किसको दोषी ठहराया जाए। कुछ बी सही, पर गिरीन्द्र भी एक भला लड़का है, नम्र स्वभाव वाला है। उसके यहाँ ललिता को किसी प्रकार का कष्ट न होगा। वह धनवान भी है।’ यह कहकर वह चुप हो गई।
उत्तर में न तो शेखर कुछ कह ही सका और न सामने रखी हुई थाली से उठाकर खा ही सका। थोड़ी देर बाद माँ वहाँ से उठकर चली गई और शेखर भी बिना खाए-पीए उठ गया। हाथ-मुंह धोखर वह अपने बिछौने पर जा पड़ा।
दूसरे दिन संध्या-समय शेखर टहलने निकला। उस वक्त गुरुचरण बाबू के यहाँ पहले की तरह चाय उड़ रही थी, हंसी-मजाक, हो रहा था। वहाँ की बातें सुनकर शेखर कुछ देर रुक गया, फिर न जाने क्या सोचकर, वह धीरे-धीरे गुरुचरण बाबू के कमरे में आकर खड़ा हो गया। उसके आते ही वहाँ सन्नाटा छा गया शेखर के मुख के भाव देखर सभी लोगों के भाव बदल गए।
शेखर के परदेश से आने की खबर ललिता के सिवा और किसी को न थी। आज पड़कर वह शेखर की और दखने लगे। गिरीन्द्र का चेहरा गंभीरता में और भी परिणत हो गया, वह दीवार की तरफ देखने लगा। गुरुचरण बाबू ही उस समय ज्यादा जोर से बातें कर रहे थे। शेखर को देखर उनका चहेरा पीला हो गया। उसके निकट बैठी ललिता चाय तैयार कर रही थी। उसने मुंह उठाकर देखा और नीचा कर लिया।
आगे बढ़कर शेखर ने चौकी पर सिर झुककर नमस्कार किया और वहीं पर एक ओर बैठकर हंसते-हंसते कहने लगा- ‘एकाए सभी लोग चुप क्यों हो गए?’
गुरुचरण बाबू ने धीमे स्वर में आशीर्वाद दिया, आशीर्वाद में उन्होंने क्या कहा – सुनाई नहीं पड़ा ।